भगवान बदरी विशाल के कपाट खुलने की प्रक्रिया शुरू हो गई है। कपाट खोलने से जुड़ी एक परंपरा आज भी टिहरी स्थित राजमहल में निभाई जाती है, जिसमें राजपरिवार और डिमरी समाज की सुहागिन महिलाएं अपने हाथों से तेल को निकालती हैं। इस पंरपरा के साथ ही कपाट खुलने की प्रक्रिया का शुभारंभ हो गया है
भगवान बदरीनाथ के अभिषेक के लिए निकाला तिलों का तेल
भगवान बदरीनाथ के अभिषेक के लिए टिहरी राजपरिवार तथा अन्य सुहागिन महिलाओं ने तिलों का तेल निकाला जाता है जिसके साथ ही पवित्र गाडू घड़ा तेल कलश यात्रा की शुरूआत होती राजदरबार में निकाले गये तिलों का यही तेल अगले छह माह तक भगवान बदरीनाथ के अभिषेक में प्रयोग किया जाता है।
पौराणिक कथा
पौराणिक लोक कथाओं के अनुसार, बद्रीनाथ तथा इसके आस-पास का पूरा क्षेत्र किसी समय शिव भूमि (केदारखण्ड) के रूप में अवस्थित था। जब गंगा नदी धरती पर अवतरित हुई, तो यह बारह धाराओं में बँट गई, तथा इस स्थान पर से होकर बहने वाली धारा अलकनन्दा के नाम से विख्यात हुई। मान्यतानुसार भगवान विष्णु जब अपने ध्यानयोग हेतु उचित स्थान खोज रहे थे, तब उन्हें अलकनन्दा के समीप यह स्थान बहुत भा गया। नीलकण्ठ पर्वत के समीप भगवान विष्णु ने बाल रूप में अवतार लिया, और क्रंदन करने लगे। उनका रूदन सुन कर माता पार्वती का हृदय द्रवित हो उठा, और उन्होंने बालक के समीप उपस्थित होकर उसे मनाने का प्रयास किया, और बालक ने उनसे ध्यानयोग करने हेतु वह स्थान मांग लिया। यही पवित्र स्थान वर्तमान में बद्रीविशाल के नाम से सर्वविदित है
विष्णु पुराण में इस क्षेत्र से संबंधित एक अन्य कथा है, जिसके अनुसार धर्म के दो पुत्र हुए- नर तथा नारायण, जिन्होंने धर्म के विस्तार हेतु कई वर्षों तक इस स्थान पर तपस्या की थी। अपना आश्रम स्थापित करने के लिए एक आदर्श स्थान की तलाश में वे वृद्ध बद्री, योग बद्री, ध्यान बद्री और भविष्य बद्री नामक चार स्थानों में घूमे। अंततः उन्हें अलकनंदा नदी के पीछे एक गर्म और एक ठंडा पानी का चश्मा मिला, जिसके पास के क्षेत्र को उन्होंने बद्री विशाल नाम दिया।यह भी माना जाता है कि व्यास जी ने महाभारत इसी जगह पर लिखी थी,और नर-नारायण ने ही क्रमशः अगले जन्म में क्रमशः अर्जुन तथा कृष्ण के रूप में जन्म लिया था। महाभारतकालीन एक अन्य मान्यता यह भी है कि इसी स्थान पर पाण्डवों ने अपने पितरों का पिंडदान किया था। इसी कारण से बद्रीनाथ के ब्रम्हाकपाल क्षेत्र में आज भी तीर्थयात्री अपने पितरों का आत्मा की शांति के लिए पिंडदान करते हैं।